अगर आप रामायण महाभारत अन्य कोई महाकाव्य के बारे में जानते होंगे तो आप छंद शब्द से भलीभांति परिचित होंगे, क्योंकि वह हमें कई प्रकार के छंद देखने को मिलते हैं।
पर आपके मन में एक प्रश्न आता होगा छंद किसे कहते हैं, तो हम आज आपको बताएंगे कि आखिर छंद किसे कहते हैं, छंद कितने प्रकार के होते हैं एवं छंद के बारे में अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां जिससे आप पूरी तरह अनजान है।
दरअसल प्राणि शास्त्रों की मान्यता है कि सृष्टि के सृजन के बहुत बाद लोगों ने बोलना सीखा और यह वाणी ही मानव सभ्यता के विकास का प्रथम सोपान सिद्ध हुई। इस क्रम में यह कहा जा सकता है कि सभ्यता के प्रथम सुप्रभात में आदि मानवों को वाणी का वरदान मिला होगा।
वे अपनी अभिव्यक्ति को मूर्त रूप देकर कृतकृत्य हो उठे होंगे। जीवन-प्रवाह चलता रहा होगा। फिर एक दिन उन्हें छन्दों का वरदान मिला होगा। अनायास उनका कण्ठ मुखर हो उठा होगा, ओठ पटपटा उठे होंगे। साथ ही वन्य प्रान्तर के अणु-अणु झंकृत हो उठे होंगे। माफ कीजिएगा हम अपने आर्टिकल को थोड़ा हिन्दीनुमा बना रहे हैं।
भावुक आदि मानव अपने गीतों की मधुरिमा में स्वयं ही खो गये होंगे। शनैः शनैः सभ्यता के विकसित चरण उनके विकास में भी गति भरते होंगे, जिससे प्रियतम की प्रतीक्षा, भ्राता की मङ्गल कामना, वीरों की प्रशंसा और दुर्जनों की निन्दा आदि गीतों के विषय बन गये होंगे। यह वही समय रहा होगा, जबकि विकसनशील साहित्य के निर्माण का आरम्भ हुआ होगा।
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इस काल की रचना आज पूर्णतः तो नहीं, किन्तु किञ्चित् मात्रा में, वेदों में गाधाओं के नाम से समुपलब्ध हो रही है। वेद-रचना काल तक आते-आते सभ्यता अतिविकसित हो चुकी होगी।
परंतु इन सब बातों का छंद किसे कहते हैं से क्या तात्पर्य है, हम छंद की ओर मुड़ते हैं तो आपको बता दें की वेदों में छन्द के तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं जिसमें से प्रथम रूप का स्वतन्त्र संग्रह तो आज प्राप्य नहीं है। फिर भी वेदों में गाथाओं के नाम से जो उद्धरण प्राप्त होते हैं उनकी सहज सुबोध भाषा और अकृत्रिम रचना-शैली हठात् विकसनशील साहित्य की याद दिला जाती है।
परंतु क्या छंद की प्रथम रूप का कोई वजूद नहीं है, ऐसा नहीं है कुछ भाषाशास्त्रियों ने उनके विश्लेषणों से सिद्ध भी कर दिया है कि वे प्राग् वैदिककाल की ही रचनाएं हैं। उन्हें छन्दों का प्रथम रूप माना जा सकता है।
दूसरा रूप है ऋग्वेद में प्रयुक्त छन्दों का, जो कि मात्रा और वर्णों के नियन्त्रण से पूर्णतः अभिभूत और कृत्रिमता के चमत्कार से चमत्कृत है।
तीसरा रूप है सामवेदीय गीतों में प्रयुक्त छन्दों का, जो गति, यति, ताल, लय और तुक आदि को साथ लिए एकमात्र मात्राओं के बन्धन को ही अङ्गीकार करता है।
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इन तीनों मुख्य रूपों के बाद आता है श्रेण्य (लौकिक) काल, जिसमें छन्दों के रूप में तीसरा परिवर्तन हुआ है, जिससे उसका चौथा रूप प्रकाश में आया, जिसे आज हम लौकिक छन्दों के नाम से जानते हैं।
इसके प्रथम उद्गाता हुए महर्षि वाल्मीकि और आज तक वेदव्यास, कालिदास, भवभूति आदि अनेकानेक कवियों की वाणी को पवित्र करता हुआ अविच्छित गति से चलता आ रहा है। छन्दों का प्रारम्भिक रूप गोतमय ही था। इस मान्यता में एक यह भी प्रमाण है कि छन्दों का प्रयोग होता है काव्य में, और काव्य-सृजन के लिए आत्मिक अनुभूतियां हो पर्याप्त होती हैं।
छंद क्या है ?
ऊपर हमने छंद के कुछ रूपों के बारे में जाना, परंतु हमारा प्रश्न है कि आखिर छंद क्या है ? एवं इस का उत्पत्ति कैसे हुआ तो चलिए इसके बारे में जानते हैं।
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दरअसल 'छन्द' शब्द संस्कृत के छन्दस् शब्द का अर्द्धतत्सम रूप है। इसकी व्युत्पत्ति छदि संवरणे के असुन प्रत्यय करने पर होती है। उक्त शब्द का व्यवहार सामान्यतः कामना, अभिलाषा, स्वेच्छाचार आदि की संज्ञा के रूप में होता है।
व्याकरण शास्त्र के अनुसार कई प्रकार से 'छन्द शब्द की व्युत्पत्ति की जा सकती है। रुचिकर और श्रुतिप्रियलयबद्ध वाणी ही छन्द है-'छन्दयति पृणाति रोचते इति छन्द:।' जिस वाणी का श्रवण करते ही अन्तः करण आह्लादित हो जाता है, वह छन्दमयी वाणी ही वेद है-'छन्दयति आह्लादयति छन्द्यन्तेऽनेन वा छन्दः
'छन्द' शब्द की व्युत्पत्ति का यह एक पक्ष या एक उद्देश्य हुआ, लेकिन वेद-मन्त्रों के लिए उसका दूसरा भी पक्ष या उद्देश्य है जो कि पहले उद्देश्य की अपेक्षा अधिक सारवान् प्रतीत होता है। महर्षि यास्क ने 'छन्द' शब्द की व्युत्पत्ति 'छद्' धातु से उद्धत माना है, जिसका अर्थ है- आवृत करना।
दूसरे शब्दों में छंद की परिभाषा कहे तो छन्द वेदों का आवरण है। अथवा जो शब्दों को विशिष्ट आवरण में बाँधे रखता है उसे ही छंद कहते हैं ।
पुनश्च इसी संदर्भ में हम कह सकते हैं कि काव्य में लय की मधुरिमा और ओजोगुण के निर्वाह के लिए भाषा के प्रवाह निमित्त भाषा के प्रवाह की गति के संयम को या एक निश्चित दिशा में नियन्त्रित करने को 'छन्द' कहते हैं।
छंद के प्रकार
छंद के विभिन्न परिभाषा के बाद अगर हम छंद के प्रकार के बारे में बात करें तो , छन्द दो प्रकार के हैं- मात्रिक और वर्णिक।
मात्रिक छन्दों में मात्राओं के अनुसार और वर्णिक छन्दों में वर्णों के अनुसार गणना की जाती हैं। वेदों में वर्णिक छन्दों का ही प्रयोग हुआ है। छन्द' की जगह 'मात्रिकवृत्त' भी कहा जाता है। छन्द का दूसरा नाम वृत्त है। अतः 'मात्रिक सकता है।
छंद के अंग
छन्द के निम्नलिखित अंग हैं : - 1. चरण या पाद 2. वर्ण–मात्रा 3. संख्या-क्रम 4. लघु-गुरु 5. गण 6, यति 7. गति और 8. तुका
1. चरण या पाद :- छन्द के चतुर्थ भाग को 'चरण' या 'पाद' कहते हैं। दूसरे शब्दों में, कविता की एक पंक्ति को चरण या पाद कह सकते हैं। 'श्री गुरु चरन सरोज रज' यह एक पाद है। इसी तरह के चार पाद मिलकर एक 'चौपाई' छन्द का निर्माण करते हैं।
2. वर्ण-मात्रा :- पद या शब्द के उस सबसे छोटे अंश को, जिसका कोई अंश न हो सके, 'वर्ण' या 'अक्षर' कहते हैं। 'वर्णिक छन्द' में ह्रस्व वर्ण हो या दीर्घ- वह एक ही वर्ण माना जाता है। वर्ण- वर्ण और अक्षर एक ही है। जैसे- छटा, छाया। इन दोनों शब्दों में दो-दो ही वर्ण हैं।
- मात्रा- ‘मात्रा' शब्द का अर्थ है- परिमाण मीयतें यया सा मात्र । अर्थात् किसी वस्तु को मापा जाय। व्यंजनों की मात्रा आधी है, इसीलिए उनका अउच्चारण होता है और छन्द-शास्त्र में उनकी गिनती ही नहीं होती।
- एक मात्रा वाले स्वर छोटे होते हैं, इसलिए उनका नाम ह्रस्व है, ह्रस्व:- छोटा दो मात्रा वाले स्वर बड़े होते हैं, इसलिए उनका नाम दीर्थ है,
- दीर्घ: बड़ा छन्द-शास्त्र में हूस्व-दीर्घ को 'मात्रा' कहते हैं। स्वर के साथ व्यंजनों का भी समावेश होता है, पर व्यंजनों की मात्रा नहीं गिनी जाती। जैसे 'ध्य' मॅथ्यू ये दो व्यंजन हैं और 'अ' स्वर है।
- यहाँ 'अ' के कारण 'ध्य' की एक ही मात्रा मानी जायेगी। इसी तरह 'सदन' में तीन मात्राएं मानी जायेंगी। दीर्घस्वर वाले वर्णों की दो मात्राएं मानी जायेंगी। दीर्घस्वर वाले वर्गों की दो मात्राएं होती हैं। जैसे-'माला' में चार मात्राएं हैं। पुनश्च मधुर माधव की ऋतु आ गयी। यहाँ 12 वर्ण और 16 मात्राएं हैं।
3. संख्या-क्रम : संख्या वर्णों और मात्राओं की गणना को 'संख्या' कहते हैं। लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को 'क्रम' कहते हैं। 'वर्णिक छन्द' में न केवल वर्णों की संख्या नियत रहती है, बल्कि वर्णों का लघु-गुरु-क्रम भी नियत रहता है।
4. लघु-गुरु : लघु- ह्रस्ववर्णों को 'लघु' कहते हैं। जैसे- अ, इ, उ, ऋ उक्त ह्रस्व स्वरों तथा ह्रस्व स्वरों से युक्त एक व्यंजन या संयुक्त व्यंजन को 'लघु' समझा जाता है। जैसे-कमल, इसमें तीनों वर्ण लघु हैं। अलंकार किसे कहते हैं
उक्त शब्द का मात्रा चिह्न हुआ- गुरु
(क) संयोग के बाद में रहने पर संयोग से पूर्व का ह्रस्व गुरु होता है। दूसरे शब्दों में, संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता है। जैसे- इन्द्र 'इ' गुरु है।
(ख) सभी दीर्घवर्ण गुरु होते हैं। जैसे-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ऐ, ओ, औ
(ग) आ, ई, ऊ और ऋ ये दीर्घस्वर और इनसे युक्त व्यंजन गुरु होते हैं। जैसे- माला, छाया, दीदी इत्यादि।
उक्त तीनों शब्दों का मात्राचिह्न हुआ ऽऽ (घ) अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे- संयोग। लेकिन, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण गुरु नहीं , जैसे-हँती।
(ङ) विसर्गयुक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे- अतः, स्वतः, दुःख, निःसंदेह,
5. गण : तीन मात्रिक वर्णों के समूह को 'गण' कहते है। गण आठ हैं। इनके नाम तथा दोनों वर्णों के आदि, मध्य और अन्त में कहाँ लघु और कहाँ गुरु हो, इसे समझने के लिए निम्नलिखित सूत्र को स्मरण रखना चाहिए।
सूत्र है : यमाताराजभानसलगा:
उक्त सूत्र में केवल प्रारम्भिक आठ अक्षरों के आधार पर आठ गणों का नाम होता है। जिस गण का उल्लेख करना हो, उसमें उस वर्ण के आने वाले दो वर्णों तक लघु-गुरु लेकर तीनों वर्णों के लघु-गुरु का क्रम जान लिया जाता है।
6. यति : 'यति' का अर्थ है- विराम या विश्राम दूसरे शब्दों में, थोड़ी देर के ठहराव को 'यति' कहते हैं। यति से लय में मधुरता आ जाती है, छन्द अधिक संगीतमय हो जाता है। बड़े छन्दों के एक-एक चरण में इतने अधिक वर्ण होते हैं कि लय को ठीक करने तथा उच्चारण की स्पष्टता के लिए कहीं-कहीं रुकना जरूरी हो जाता है।
7. गति : - गति का अर्थ है- लय या प्रवाह वर्णिक छन्दों में इसकी आवश्यकता नहीं होती, लेकिन मात्रिक छन्दों में इसकी आवश्यकता होती है। जब सकोप लखन वचन बोले' में 16 मात्राएं हैं, लेकिन इसे चौपाई का एक चरण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें गति नहीं है।
- गति ठीक करने के लिए इसे 'लखन सकोप वचन जब बोले करना पड़ेगा। यों तो गति का कोई खास नियम नहीं है, लेकिन छन्द के चरणों की मात्राएं ठीक हैं और शब्दों का क्रम भी ठीक है तो गति आप-ही-आप उत्पन्न होगी।
8. तुक: चरणों के अन्त में वर्णों की आवृत्ति को 'तुक' कहते हैं। जैसे हास, परिहास, चक्र, वक आदि से चरण समाप्त पर कहा जाता है कि कविता तुकान्त है। संस्कृत छन्द में तुक का महत्व नहीं था, पर हिन्दी में तुक ही छन्द का प्राण है।
9. मुक्तछन्द : मुक्तछन्द में चरणों की अनियमिता रहती है। इसमें न वर्णों की गिनती होती है, न मात्राओं की, बल्कि भाव की प्रधानता होती है।
दूसरे शब्दों में, चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छन्द गति और भावानुकूल यतिविधान ही मुक्तछन्द की महती विशेषता है। मुक्तछन्द का कोई नियम नहीं है। यह गिरि कि अन्तस्तल से फूटता स्त्रोत है, जो अपने लिए मार्ग बना लेता है। निराला से लेकर 'नई कविता' तक हिन्दी कविता में इसका अतिशय प्रयोग हुआ है।
वर्णिक छन्द किसे कहते है ?
वर्णिक छन्द के दो भेद हैं- 1. साधारण और 2. दण्डक
1 से 26 वर्ण तक के पाद (चरण) रखने वाले वर्णिक छन्द साधारण होते हैं और इससे अधिक वाले दण्डका घनाक्षरी (कवित्त) और उसकी 'रूप' तथा 'देव' आदि जातियाँ 'दण्डक' में आती हैं। 'घनाक्षरी' में 31 वर्ण होते हैं। 16 वें और 15 वें वर्ण पर यति होती है तथा अन्त में लघु-गुरु का विधान होता है।
इन्द्रवज्रा छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों, उसे 'इन्द्रवज्रा' छन्द कहते हैं। इसके पादान्त में यति होती है।
उपेन्द्रवज्रा छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में जगण, तगण, जगण तथा दो गुरु हों, उसे 'उपेन्द्रवज्रा' छन्द कहते हैं। इसके पादान्त में यति होती है।
द्रुतविलम्बित छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमशः एक नगण, दो भगण और अन्त में रगण हो, उसे 'द्रुतविलम्बित' छन्द कहते हैं। इसके पादान्त में यति होती है।
तोटक छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में चार सगण हों, उसे 'तोटक' छन्द कहते हैं। इसके पादान्त में यति होती है।
वंशस्थ छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमश: जगण, तगण, जगण और रगण हो, उसे 'वंशस्थ' छन्द कहते हैं। इसके पादान्त में यति होती है।
भुजंगप्रयात छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमश: चार यगण होते हैं, 'भुजंगप्रयात' छन्द कहते हैं। इसके पादान्त में यति होती है।
वसन्ततिलका छंद किसे कहते हैं ?
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में तगण, भगण, दो जगण, दो गुरु हो, उसे 'वसन्ततिलका' छन्द कहते हैं।
मालिनी छंद किसे कहते हैं ?
मालिनी जिस पद्म के प्रत्येक चरण में क्रमशः दो नगण, एक मगण और दो बगव हों, उसे 'मालिनी' छन्द कहते हैं। आठ और सात वर्णों पर यति होती है।
शिखरिणी छंद किसे कहते हैं
जिस पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमश: यगण, मगण, नगण, अगण, भगण और अन्त में लघु-गुरु हों, उसे 'शिखरिणी' छन्द कहते हैं। इसके छह और ग्यारह वर्णों पर यति होती है।
मन्दाक्रान्ता किसे कहते हैं ?
जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, भगण, नगण, दो तगण और अन्त में दो गुरु हों, उसे 'मन्दाक्रान्ता' छन्द कहते हैं। चार, छह और सात वर्णों पर चेति होती है।
शार्दूलविक्रीडित जिस पद्य के प्रत्येक चरण में क्रमश: मगण, सगण, जगण, दो कवित्त इसके प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण होते हैं। उक्त छन्द के अनेक भेद है, - जिन्हें मनहरण, रूपघनाक्षरी, देवघनाक्षरी आदि नाम से पुकारते हैं। 'मनहरण या कवित के प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते हैं। अन्त में गुरु होता है। 16,15 या 8-8-8-7 वर्ण पर यति होती है। तुक चारों चरणों में होती है।
सवैया छंद किसे कहते है ?
इस छन्द के प्रत्येक चरण में 22 से 26 तक वर्ण होते हैं। इसके अनेक प्रकार और अनेक नाम हैं। जैसे-मत्तगयंद, दुर्मिल, किरीट आदि। तात्पर्य यह है कि उक्त छन्द में 24 वर्ण होते हैं।
नोट- भगण के कारण काले अक्षरों को ह्रस्व या लघु के समान पढ़ा जायेगा। ब्रजभाषा आदि में, ऐसी स्थिति में गुरु को लघु पढ़ने की परम्परा है।
मात्रिक छन्द किसे कहते हैं ?
दोहा इस छन्द के प्रथम और तृतीय चरण में 13 मात्राएं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में ।। मात्राएं होती हैं। द्वितीय और चतुर्थ चरण में तुक होना अनिवार्य है। चरण के अन्त में यति होती है। उपसर्ग किसे कहते हैं
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार।
सोरठा किसे कहते हैं ?
इस छन्द के प्रथम और तृतीय चरण में 11 मात्राएं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 13 मात्राएं होती हैं। तुक प्रथम और तृतीय चरण में होती है। यह दोहा का उलटा है।
उदाहरणार्थ देखें
निज मन मुकुर सुधार, श्री गुरु चरन सरोज रज जो दायक फल चार, बरनौ रघुवर विमल जस
चौपाई इस छन्द के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएं होती हैं। चरण के अन्त में जगण (151) और तगण (SSI) का प्रयोग नहीं होता।
तुक प्रथम चरण की द्वितीय से और तृतीय चरण की चतुर्थ से मिलती है। प्रत्येक चरण के अन्त में यति होती है। उदाहरणार्थ देखें
बदॐ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भवरुज परिवारू।।
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