संसार में बोली जाने वाली भाषाओं की निश्चित संख्या बता पाना संभव नहीं है। फिर भी यह अनुमान है कि विश्व में लगभग सात हजार भाषाएँ बोली जाती है। और हिंदी भाषा का विकास भी इन्ही में निहित है।
ध्वनि, व्याकरण शब्द-समूह के आधार पर भौगोलिक दृष्टि से इन भाषाओं का वर्गीकरण पारिवारिक संबंधों के अनुसार किया गया है।
इस वर्गीकरण में भारोपीय भाषा-परिवार बोलने वालों की संख्या क्षेत्रफल और साहित्यिकता की दृष्टि से सबसे बड़ा परिवार है और यह भारत से यूरोप तक फैला हुआ है।
भारोपीय परिवार की दस शाखाएँ मानी गई हैं, जिनमें एक है भारत-ईरानी शाखा भारत-ईरानी शाखा की भारतीय आर्यभाषा, ईरानी और दरदी उपशाखाएं है।
भारतीय-आर्य भाषाओं को काल की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
(1) प्राचीन भारतीय आर्य-भाषाएँ (1500 ई.पू. तक)- संस्कृत आदि
(2) मध्य भारतीय आर्य भाषाएँ (500 ई.पू. से 1000 ई. तक) - पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि और
(3) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ (1000 ई. से आज तक) - हिन्दी, बंगाली, मराठी आदि।
आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाओं में हिन्दी भी एक मुख्य भाषा है।हिंदी भाषा का विकास के इतिहास को भी तीन मुख्य कालों में बाँटा जा सकता है:
आदि काल में हिंदी भाषा का विकास
(1000 ई. से 1500 ई. तक) इस काल में अपभ्रंश तथा प्राकृत का प्रभाव हिन्दी पर था और उस समय हिन्दी का स्वरूप निश्चित रूप से स्पष्ट नहीं हो पाया था।
इस काल में मुख्य रूप से हिन्दी की वही ध्वनियाँ (अर्थात् स्वर एवं व्यंजन) मिलती हैं जो अपभ्रंश में प्रयुक्त होती थीं।
कुछ ध्वनियों का अलग से आगम हुआ है जैसे अपभ्रंश में 'ड' और 'द व्यंजन नहीं थे किंतु आदिकालीन हिन्दी में ये ध्वनियाँ मिलती हैं।
इसके अतिरिक्त च छ ज झ ध्वनियाँ संस्कृत से अपभ्रंश तक स्पर्श ध्वनियाँ थीं, किंतु हिन्दी में आकर ये ध्वनियाँ स्पर्श-संघर्षी-सी हो गई (हालांकि कुछ विद्वान इन्हें स्पर्श ध्वनियाँ ही मानते हैं)।
संस्कृत और अरबी-फारसी के शब्दों के आ जाने के कारण कुछ नए व्यंजन आ गए जो अपभ्रंश में नहीं थे। अपभ्रंश संयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर मुड़ने लगी थी जिसे हिन्दी ने अपनाना आरंभ कर दिया।
सहायक क्रियाओं और उपसर्गों का प्रयोग अधिक होने लगा जिससे हिन्दी का वियोगात्मक रूप और अधिक उभरने लगा। इसके अतिरिक्त वाक्य रचना में शब्दक्रम धीरे-धीरे निश्चित होने लगा और आदिकालीन हिन्दी में नपुंसक लिंग भी प्रायः समाप्त हो गया जो अपभ्रंश तक विद्यमान था।
इसमें संस्कृत की तत्सम शब्दावली की वृद्धि हुई और मुसलमानों के आगमन से अरबी-फारसी तथा तुर्की शब्द भी आने लगे।
मध्यकाल में हिंदी भाषा का विकास
(1500 ई. से 1800 ई. तक) इस काल में अपभ्रंश का प्रभाव पूर्णतया समाप्त हो गया था और हिन्दी की सभी बोलियाँ विशेषकर ब्रज, अवधी और खड़ीबोली • स्वतंत्र रूप में प्रयुक्त होने लगी थी। यही से हिंदी भाषा का विकास की नींव रखी गई।
इसमें शब्दांत में मूल व्यंजन के बाद 'अ' का लोप होने लगा जैसे 'राम का उच्चारण 'राम हो गया। न केवल यही दीर्घ स्वर से संयुक्त व्यंजन के पहले अक्षर में भी 'अ' का लोप होने लगा जैसे जनता जन्ता।
अरबी फारसी के प्रभाव से उच्चवर्ग की हिन्दी में क, ख, ग, ज, फ पाँच नए व्यंजनों का आगम हुआ।
इस काल में भाषा आदिकालीन हिन्दी की अपेक्षा अधिक वियोगात्मक हो गई। सहायक क्रियाओं और परसर्गों का प्रयोग और भी बढ़ गया।
भक्ति आंदोलन के अत्यधिक प्रभाव के कारण तत्सम शब्दों की अत्यधिक वृद्धि भी हुई। इसके साथ-साथ अरबी-फारसी आदि आगत शब्दों की संख्या भी काफी बढ़ी।
न केवल यही यूरोप से संपर्क हो जाने के कारण पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अंग्रेजी के भी कमीज, तौलिया, पिस्तौल, नीग्रो, कूपन, कारतूस, कोट, स्वेटर, माचिस, सिगरेट आदि कई शब्द आ गए।
इसी काल में दक्खिनी हिन्दी भाषा का भी विकास हुआ जो हैदराबाद दक्षिण (गोलकुंडा, बीदर, गुलबर्गा आदि) में प्रचलित हुई।
आधुनिक काल (1800 ई. से अब तक ) साहित्य के क्षेत्र में खड़ीबोली का व्यापक •प्रचार होने के कारण हिन्दी की अन्य बोलियाँ लगभग दब गई। यह बात अलग है कि अपने-अपने प्रदेशों में इनका प्रयोग अब भी जारी है लेकिन उन पर भी खड़ीबोली का प्रभाव है।
इसके अतिरिक्त अंग्रेजी के प्रभाव के कारण अरबी-फारसी की क ख और ग ध्वनियों का प्रयोग बहुत कम हो गया है लेकिन ज एवं फ' का प्रयोग और अधिक बढ़ गया है। अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से शिक्षित वर्ग में ऑ ध्वनि का आगम हुआ है, जैसे - डॉक्टर, कॉलिज, ऑफिस
इस काल में हिन्दी पूर्णतया वियोगात्मक भाषा बन गई है। इसके व्याकरण का मानक रूप काफ़ी सुनिश्चित हो गया है।
हिन्दी जहाँ संस्कृत के अतिरिक्त अरबी-फारसी से काफी प्रभावित रही है, वहाँ प्रेस, रेडियो और सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का अत्यधिक प्रयोग होने के कारण हिन्दी की वाक्य-रचना और मुहावरे लोकोक्तियों में अंग्रेजी का बहुत प्रभाव पड़ा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को सरकारी काम-काज की राजभाषा बनाने तथा विज्ञान, वाणिज्य आदि में प्रयोजनमूलक कार्य करने के कारण इसकी पारिभाषिक शब्दावली में अत्यधिक वृद्धि हुई है और अभी भी हो रही है।
इस प्रकार शब्द-संपदा के समृद्ध होने से हिन्दी अपनी अभिव्यक्ति में अधिक समर्थ और गहरी होती जा रही है।
हिंदी भाषा का उद्भव
हिन्दी शब्द का उद्भव संस्कृत शब्द सिंधु से माना गया है। यह सिंधु नदी के आस पास की भूमि का नाम है।
ईरानी स' का उच्चारण प्रायः ह होता है, इसलिए सिंधु का रूप हिन्दू हो गया और बाद में 'हिन्द' हो गया। इसका अर्थ हुआ 'सिंघ प्रदेश बाद में हिन्द शब्द पूरे भारत के लिए प्रयुक्त होने लगा।
इसमें ईरानी का इक प्रत्यय लगने से हिन्दीक शब्द बना, जिसका अभिप्राय है हिन्दू का। कहा जाता है इसी हिन्दी का शब्द से यूनानी शब्द इंदिका और वहीं से अंग्रेजी शब्द 'इंडिया बना है।
विद्वानों के मतानुसार हिन्दीक' से क शब्द के लोप हो जाने से हिन्दी शब्द रह गया जिसका मूल अर्थ हिन्द का होता है।
छठी शताब्दी के कुछ पहले ईरान में भारत की भाषाओं के लिए जुबान-ए-हिन्दी का प्रयोग होता था। ईरान के प्रसिद्ध बादशाह नौशेरवाँ (531-579 ई.) ने अपने एक विद्वान हकीम राजरोगा को पंचतंत्र का अनुवाद कर लाने के लिए भारत भेजा था।
बजरोया ने अपने अनुवाद में कर्कटक और दमनक का कलीला और दिमना नाम रखा। नौशेरवों के मंत्री बुार्थ मेहर ने इसकी भूमिका लिखते हुए इस अनुवाद को जुबान-ए-हिन्दी से किया हुआ कहा है।
यहाँ जुबान-ए-हिन्दी से अभिप्राय भारतीय भाषा अर्थात् संस्कृत से है। इसके बाद पद्म और गया में कई अनुवाद हुए और इन सभी अनुवादों में मूल पुस्तक को जुबान-ए-हिन्दी ही कहा गया। संस्कृत के लिए यह नाम दसवीं शताब्दी तक चलता रहा।
इसके पश्चात 1227 ई में मिनहाजुसिराज ने अपनी पुस्तक तबकाते नासिरी में जबान-ए-हिन्दी के संदर्भ में बिहार का अर्थ मदरसा रखा। इससे यह संकेत मिलता है कि इस काल में जुबान-ए-हिन्दी का प्रयोग संस्कृत के लिए न होकर भारतीय भाषा या भारत के मध्य भाग अर्थात मध्यदेशीय बोलियों के लिए हो रहा था।
14वीं शताब्दी में हिन्दी शब्द का प्रयोग एक ही भाषा के लिए होने लगा। सन् 1333 ई. में इन बलूता ने अपने रेहला इब्न बतूता में 'किताबत अलाबज अलजदरात विल हिन्दी अर्थात कुछ दीवारों पर हिन्दी में लिखा था, उल्लेख किया है।
सन् 1424 ई. में तैमूरलंग के पोते के शासनकाल में शरफुद्दीन यज्दी के जफरनामा में हिन्दी शब्द मिलता है। इस प्रकार विदेश में यह हिन्दी के लिए 'हिन्दी शब्द का प्रथम प्रयोग माना जाता है। हिन्दी शब्द का प्रयोग वस्तुतः विदेश में मुसलमानों ने किया था।
भारतीय परंपरा में प्रचलित भाषा के लिए प्राचीन काल से ही भाषा शब्द का प्रयोग होता आया है जो क्रमशः संस्कृत, प्राकृत और बाद में हिन्दी के लिए प्रयुक्त हुआ है।
कबीर जायसी, तुलसी आदि ने अपने साहित्य में प्रयुक्त भाषा को भाषा की संज्ञा दी है जबकि यह हिन्दी थी, जैसे
"संस्कृत कबिरा कूप-जल भाषा बहता नीर " - कबीर
"आदि अंत जसि कथ्या अहै, लिखि भाषा चौपाई "- जायसी
"भाषा भनति मोर मति थोरी " - तुलसी
फोर्ट विलियम कॉलिज में हिन्दी के अध्यापक के लिए भाषा मुंशी का प्रयोग हुआ है। यह भाषा शब्द बाद में भाखा के रूप में भी प्रयुक्त होता रहा जो आधुनिक काल तक चलता रहा। वास्तव में भाखा शब्द ब्रजभाषा के लिए रूढ हो गया।
विद्वानों के मतानुसार भारत में हिन्दी शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने किया था जुज्बे चंद नज़में हिन्दी नीज़ नज़ेदोस्ता करदा शुदा अस्त।
बाद में खालिकबारी कोश में इसका प्रयोग कई बार हुआ है। यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी की अपेक्षा 'हिन्दवी' शब्द अधिक प्राचीन है।
हिन्दी, हिन्दवी शब्द का प्रयोग अमीर खुसरो ने भी कई स्थलों पर किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं- तुर्क हिन्दुस्तानिभ मन हिन्दवी गोयम जवाब अर्थात् हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।
यह भी तर्क दिया जाता है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग पहले भारतीय मुसलमानों के लिए होता था और हिन्दवी शब्द मध्यदेशीय भाषा के संदर्भ में यह हिन्दवी शब्द वस्तुतः हिन्दवी या हिन्दुई है।
कुछ विद्वान इसे हिन्दुओं की भाषा भी कहते हैं (हिन्दू + ई अर्थात हिन्दुओं की भाषा) बाद में यह हिन्दवी शब्द हिन्दी भाषा के लिए प्रयुक्त होने लगा। और हिंदी भाषा का विकास होने लगा।
वैसे तो इस दृष्टि से हिन्दवी शब्द पुराना है और हिन्दी अपेक्षाकृत बाद का। तुलसी के फारसी पंचनामे जटमल की गोरा बादल की कथा तथा इंशा अल्ला खां की रानी केतकी की कहानी में भी केवल हिन्दवी शब्द समानार्थी हो गए।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक हिन्दवी भाखा या भाषा के संदर्भ में प्रयुक्त होती रही। हातिम के दीवानजादे के दोबाचे में लिखा है जबान दर दार ता बहिन्दवी कि आरा माका गोयन्द।
इससे स्पष्ट होता है कि हिन्दवी और भाखा प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते थे किंतु हिन्दवी या हिन्दी का नाम अकबर की शासनकालीन में स्वीकृत भाषाओं में उपलब्ध नहीं होता।
अमीर खुसरो के ग्रंच नुहसिपर में उस काल की जिन ग्यारह भाषाओं-सिंधी, लाहौरी, कश्मीरी, गौडी, तिलंगी, मारवाडी, गुजराती, मराठी, कर्नाटकी, बंगाली, सिंधी, अफगानी बलूचिस्तानी मिलते हैं उनमें भी हिन्दी या हिन्दवी का उल्लेख नहीं है।
किंतु ऐसा माना जाता है कि अमीर खुसरो और अबुल फजल ने देहलवी भाषा का भी उल्लेख किया है। वह मध्यदेशीय भाषा या हिन्दी से ही अभिप्रेत है। इस दृष्टि से यह कह सकते हैं कि हिन्दयी या हिन्दी शब्द कदाचित साहित्य तक सीमित हो।
हिन्दवी या हिन्दी शब्द के अविच्छिन्न प्रयोग की परंपरा दक्खिनी कवियों और गद्यकारों में भी पाई जाती है। हजरत बंदेनवाज़ गेसूदराज, शाह बुरहानुद्दीन जानम, मीराजु शम्सुल इश्शाक, मुल्ला यजही आदि दक्खिनी साहित्यकारों ने अपनी कृतियों में हिन्दवी या हिन्दी शब्द का प्रयोग किया है।
वास्तव में दक्षिण भारत में हिन्दी को दक्खिनी कहा जाता था। पूर्व और पश्चिम भारत में हिन्दी भाखा के नाम से विख्यात थी। 18वीं शताब्दी तक आते-आते हिन्दी नाम ने अपना स्थायी रूप ले लिया।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक उर्दू के लेखकों में प्रायः हिन्दी का प्रयोग उर्दू या रेख्ता के समानार्थी के रूप में चलता था, किंतु आज 'हिन्दी' शब्द विवादास्पद बन गया है।
यह प्रश्न प्रायः उठता है कि उर्दू एक अलग भाषा है या हिन्दी की एक शैली है। हिन्दुस्तानी शब्द से क्या तात्पर्य है? क्या यह हिन्दी-उर्दू दोनों का सामान्यीकृत रूप है और बोलचाल की भाषा के रूप में बोली जाती है?
इसलिए इन तीनों शब्दों - हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू की व्युत्पत्ति के बारे में जानने के बाद हिन्दी भाषा का विकास के स्वरूप को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
उर्दू भाषा की उत्पत्ति
उर्दू शब्द तुर्की भाषा का है जिसका अर्थ है शाही शिविर या खेमा। जब मुगल बादशाह भारत आए तो उन्होंने यहाँ बड़े-बड़े फौजी पड़ाव डाले जिन्हें उर्दू-ए-मुअल्ला कहा जाता था।
स्थानीय लोगों से परस्पर संप्रेषण करते-करते इनकी भाषा अरबी-फारसी तुर्की में पंजाबी, बॉगरू, कौरवी, ब्रज आदि का मिश्रण होने लगा, जिससे एक नए भाषा रूप का विकास हुआ। इस नए भाषा रूप को जुबान-ए-मुअल्ला कहा गया।
बाद में इसका संक्षिप्त रूप 'उर्दू हो गया। कुछ लोग इसे हिन्दी या रेख्ता भी कहते हैं। इस प्रकार उर्दू और हिन्दी में कोई भेद नहीं है।
किंतु अलगाव की प्रवृत्ति आने से उर्दू में अरबी फारसी शब्दों, मुहावरों आदि का अधिकाधिक प्रयोग किया गया और अरबी-फारसी लिपि को अपनाया गया जिससे इसे अलग रूप देने का प्रयास किया गया जबकि इन दोनों का व्याकरण एक ही है।
वास्तव में उर्दू एक ओर हिन्दी की एक विशिष्ट शैली है किंतु दूसरी ओर इसने एक विशिष्ट साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा का निर्माण भी किया है जिसे हिन्दी परंपरा के समानांतर रखा जा सकता है और इसी कारण इसकी अपनी भाषायी अस्मिता भी है।
हिन्दुस्तानी शब्द का उद्गम
हिन्दुस्तानी' शब्द 'हिन्दुस्तान + ई के योग से बना है। ग्रिर्यसन, धीरेन्द्र वर्मा आदि कई विद्वानों का मत है कि इसका प्राचीन प्रयोग हिन्दवी, हिन्दुई या हिन्दुवी नाम से मिलता है।'
13वीं शताब्दी में औफी और अमीर खुसरो ने इसका प्रयोग किया है। बाद में हिन्दवी' नाम उस भाषा के लिए सीमित हो गया जिसमें अरबी-फारसी के शब्दों का बाहुल्य था।
बाद में हिन्दुस्तानी हिन्दी, उर्दू के बीच की भाषा मानी जाने लगी जिसमें सरल शब्दावली थी। इसमें संस्कृत तथा अरबी-फारसी के तद्भव रूप थे जो जनसाधारण की भाषा में खप गए।
गांधीजी जैसे कई मनीषियों ने हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया था। वास्तव में हिन्दी-उर्दू भाषा को सांप्रदायिकता से जोड़ कर मजहबी भाषा बनाने का जो कुप्रयास हुआ, उसे मिटाने के लिए महात्मा गांधी जैसे राजनेता और प्रेमचंद जैसे साहित्यकार ने हिन्दुस्तानी को अपनाया।
इस प्रकार हिन्दुस्तानी हिन्दी की बोल चाल का एक सरल रूप है जो भाषा की प्रकृति से जुड़ी स्वाभाविक शैली है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी और उर्दू के स्रोत क्रमशः संस्कृत और अरबी-फारसी हैं। यदि संस्कृत और अरबी-फारसी के शब्दों की बहुलता न हो तो इन दोनों भाषाओं में "दर कोई अंतर नहीं होगा।
इन दोनों का सामान्यीकृत रूप ही 'हिन्दुस्तानी' कहलाता है। वास्तव में प्रारंभ में 'हिन्दी शब्द का प्रयोग हिन्दी और उर्दू दोनों के लिए होता था
जुबान-ए-हिन्दी की मुराद उर्दू अस्त'
बाद में अंग्रेजों ने पृथकतावादी नीति के कारण ऐसी भाषा-नीति अपनाई जिसमें हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग माना गया।
इन दोनों भाषाओं का व्याकरण भी कलकत्ता के फोर्ट-विलियम कॉलिज में डॉ. गिलक्राइस्ट के निर्देशन में अलग-अलग लिखा गया।
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